तारीख- 29 मार्च 1999, दिल्ली के अशोका होटल में भारतीय राजनीति के तीन ऐसे दिग्गजों की मुलाकात होने वाली थी जिनकी विचारधारा बिल्कुल एक-दूसरे के उलट थी. ये तीन नेता थे AIADMK प्रमुख जयललिता, कांग्रेस नेता सोनिया गांधी और सुब्रमण्यम स्वामी जो एक सीक्रेट प्लान को तैयार करने में जुटे थे. दो दिग्गजों की मुलाकात में स्वामी मध्यस्थता का काम कर रहे थे और यहां तत्कालीन वाजपेयी सरकार को गिराने की पटकथा लिखी जा रही थी. इस मीटिंग के जरिए जयललिता अपनी सियासी ताकत भी दिखाना चाह रही थीं. उन्हें लग रहा था कि जिस सरकार में वह भागीदार थीं, उसे गिराने का इससे बेहतर मौका और कुछ नहीं हो सकता.
डॉ. स्वामी इस मीटिंग को याद करते हुए कहते हैं, ‘मैं पहले दिन से जयललिता से कह रहा था कि बीजेपी के साथ मत जाना, लेकिन वह उनके साथ चली गईं. बाद में, जयललिता ने माना कि मैंने उन्हें सही सुझाव दिया था और उन्होंने तय कर लिया कि वह सरकार से बाहर (समर्थन वापस) निकलेंगी. मैंने उनसे कहा कि पहले कांग्रेस और अन्य पार्टियों के साथ बेहतर रिश्ते बनाएं, लेकिन वह सोनिया गांधी के साथ जाने को तैयार नहीं थीं. यह जुलाई 1998 की बात है. मैंने अपने मोबाइल फोन पर उनकी एक-दूसरे से बात करवाई. इसके बाद मार्च 1999 के पहले हफ्ते में जया ने फोन किया और मुझसे कहा-‘मैं दिल्ली आ रही हूं और आपको एक चाय पार्टी रखनी है.’ वहीं दूसरी तरफ बीजेपी ने उनके लिए पहले से ही एक पार्टी रखी हुई थी, जिसके बारे में मैंने उन्हें बताया और कहा कि आप तो पहले से ही आमंत्रित हैं. इसके जवाब में उन्होंने कहा- आपको एक चाय पार्टी का इंतजाम करना है और अगर उसमें सोनिया गांधी आती हैं तो फिर हम वाजपेयी सरकार को गिराने की योजना पर काम करेंगे… मैंने उनसे कहा, ‘यह तुरुप का इक्का है, इसका प्रयोग तब तक मत करना जब तक कि आपके पास कोई और विकल्प ना हो. वह चाय पार्टी के लिए आईं और इस पार्टी के बाद भारतीय राजनीति में भूचाल आ गया’.
अगले दिन न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा, ‘दो महिलाओं ने एक साथ चाय पीते हुए 10 मिनट से भी कम समय बिताया.’ उनकी सार्वजनिक बातचीत पहले पन्ने की खबर बन गई. तब सोनिया गांधी ने कहा था, ‘हम पुराने दोस्त हैं.’, यही सबसे बड़ी खबर थी और यहीं से देश में एक नए उभरते गठबंधन के बारे में अटकलें शुरू हो गईं.’
गलत निकला बीजेपी का अंदेशा
Pandora’s Daughters में पत्रकार कल्याणी शंकर लिखती हैं, ‘डॉ. स्वामी का दावा था कि जया ने अपनी रणनीति का गलत आकलन किया. स्वामी कहते हैं कि मैंने जयललिता को कुछ समय इंतजार करने को कहा और वह वापस चेन्नई चली गईं. 12 अप्रैल को उन्होंने चेन्नई हवाई अड्डे पर घोषणा की कि वह दिल्ली जा रही हैं और नई सरकार बनने तक वापस नहीं आएंगी.’ दिल्ली में कोई भी उनसे बात करने को तैयार नहीं था क्योंकि वह अभी भी भारतीय जनता पार्टी के साथ थीं और बीजेपी को लगा कि वह केवल सौदेबाजी कर रही हैं. उन्हें गलत साबित करने के लिए उन्होंने अपना समर्थन वापस लेने का ऐलान कर दिया.
और 1 वोट से गिर गई वाजपेयी सरकार
17 अप्रैल 1999 का दिन, जब तमाम कोशिशों के बाजवूद एनडीए को 269 ही मिले और विपक्ष 270 वोट लाने में कामयाब रहा. इस तरह अटल सरकार 1 वोट से विश्वास मत हार गई. कहते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी इस हार के बाद फूट-फूटकर रोए थे. जब सदन में वाजपेयी एक वोट से हार गए, तो कांग्रेस वैकल्पिक सरकार बनाने की इच्छुक थी. सरकार गिरने के बाद अब सभी दलों के लिए मौका था क्योंकि हर पार्टी के अपने हित और अपने एजेंडे थे. सारे विपक्ष में एक बात कॉमन थी: सरकार को गिराने का लक्ष्य. इस योजना में कई पार्टियां शामिल थीं लेकिन विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते कांग्रेस सबसे आगे थी. सरकार गिरने के बाद जयललिता को किनारे कर दिया गया और कांग्रेस ने सत्ता संभाली.
Pandora’s Daughters में पत्रकार कल्याणी शंकर कहती हैं, ‘सोनिया गांधी यह दावा करते हुए राष्ट्रपति के पास गईं कि उनके पास लोकसभा में 272 सीटें हैं (सरकार बनाने के लिए जादुई आंकड़ा) लेकिन उन्हें पता चला कि समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह उनका समर्थन करने को तैयार नहीं हैं. वहीं जयललिता की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा थी; उन्होंने मुलायम सिंह के साथ इस विषय पर चर्चा की लेकिन अंततः यह उनका नुकसान था क्योंकि उनके पास अब सौदेबाजी की ताकत नहीं बची थी.’
1999 के लोकसभा चुनावों में, जयललिता को यह जानकर हैरानी हुई कि द्रमुक एक भागीदार के रूप में एनडीए में शामिल हो गई थी और उसने अच्छी संख्या में सीटें भी जीती थीं. स्वामी, जो पूरी पटकथा के मुख्य किरदारों में एक थे, वो बताते हैं , ‘मेरे लिए यह एक महान साहसिक कार्य था. मेरे पास करने के लिए केवल एक ही काम था- सरकार को गिराना. लेकिन जया के लिए ये दुखद था. एक बार जब सरकार गिर गई, तो जयललिता ने कहा कि वह स्थिति को खुद संभाल लेंगी और यहीं पर पूरी बात बिगड़ गई.’
जयललिता ने क्यों वापस लिया समर्थन?
दरअसल 90 के दशक में एक दौर ऐसा रहा जब केंद्र की राजनीति में जयललिता का दखल काफी बढ़ गया था. 1998 में जब लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे थे, तब जयललिता फिर से केंद्र में आने में कामयाब रही थी. संयुक्त मोर्चा सरकार ने एक बार फिर कांग्रेस के साथ अपना गठबंधन तोड़ दिया और देवेगौड़ा और बाद में आई.के. गुजराल के नेतृत्व वाली सरकार से हाथ मिला लिया. गुजराल की सरकार भी ज्यादा समय तक नहीं टिक सही. जयललिता ने कांग्रेस से अपना गठबंधन तोड़ एक बार फिर बीजेपी से हाथ मिला लिया. इसे उन्होंने एक स्वाभाविक गठबंधन बताया. तब उन्होंने सोचा कि एक राष्ट्रीय पार्टी के साथ हाथ मिलाना बेहतर है और कांग्रेस में मची मारामारी के बीच उन्हें उम्मीद थी भाजपा सत्ता में आएगी. वह वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) गठबंधन सरकार में सबसे बड़ी पार्टी थी.
(Photograph- Getty)
‘वाजपेयी द ईयर्स दैट चेंज्ड इंडिया’ के लेखक शक्ति सिन्हा कहते हैं, ‘समर्थन देने के पहले दिन से ही जयललिता ने पीएम पर दबाव बनाना शुरू कर दिया था. जयललिता चाहती थीं कि उनके जो भी मामले दर्ज किए गए हैं उन्हें वापस लिया जाए और तमिलनाडु में करुणानिधि की डीएमके सरकार को बर्खास्त किया जाए. इतना ही नहीं वह अपने करीबी सुब्रमण्यम स्वामी को वित्त मंत्री बनवाने को भी कह रही थीं.’
इसके साथ ही जयललिता कई विभागों के आवंटन में दखल सहित अपने लिए अहम विभाग मांग रही थीं, जैसा कि उन्होंने नरसिम्हा राव के साथ किया था. लेकिन वाजपेयी इन सबके लिए कतई राजी नहीं थे. परिणाम यह हुआ कि जयललिता अब सरकार के खिलाफ हो गईं. यहां तक कि जयललिता ने प्रधानमंत्री वाजपेयी के प्रति अनादर दिखाना शुरू कर दिया और जब वे चेन्नई आए तो उनका स्वागत करने से इनकार कर दिया.
जब वाजपेयी का धैर्य देने लगा था जवाब
जयललिता की बढ़ती मांगों की वजह से वाजपेयी अपना धैर्य खो रहे थे. तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष जना कृष्णमूर्ति ने तब कहा, ‘बीजेपी-एआईएडीएमके के रिश्ते कभी भी इतने मधुर नहीं रहे. हम यह भी जानते थे कि जयललिता के साथ गठबंधन करने पर हमें किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है. शायद वह भी जानती थीं कि वह लंबे समय तक भाजपा के साथ नहीं रह सकती हैं. हम शुरू से ही इस बात के लिए तैयार थे कि ब्रेकअप कभी भी हो सकता है लेकिन हमने अपनी तरफ से ऐसा नहीं किया.’
मायावती ने अंतिम क्षण में बदला था वोटिंग पर फैसला
एक साल के अंदर ही बीजेपी और एआईएडीएमके के रिश्तों में खटास आ गई. जयललिता ने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार गिराने का फैसला लिया. 17 अप्रैल 1999 को जब लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर बहस हो रही थी तो बसपा सुप्रीमो मायवाती ने पहले वोटिंग में हिस्सा नहीं लेने का फैसला किया था लेकिन बाद में उन्होंने ना केवल वोटिंग में हिस्सा लिया बल्कि सरकार के खिलाफ भी वोट दिया. इस फैसले से बीजेपी खेमा भी हैरान था.
इसके बाद सबकी नजर कांग्रेस सांसद गिरधर गोमांग पर थी, जो दो महीने पहले ही ओडिशा के सीएम बने थे लेकिन उन्होंने सांसदी नहीं छोड़ी थी. उन्होंने वाजपेयी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर हुए मतविभाजन में हिस्सा लिया और वाजपेयी सरकार के खिलाफ वोट दे दिया. इस तरह बीजेपी सरकार के पक्ष में 269 और विरोध में 270 मत पड़े और सरकार एक वोट से गिर गई. इसके कुछ महीने बाद तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने संसद भंग कर दी.
फिर 1999 में आम चुनाव हुए और बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए को 269 सीटें मिलीं और तेलुगु देशम पार्टी के 29 सदस्यों ने बाहर से सरकार को समर्थन दिया. बाजपेयी के नेतृत्व वाली यह केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी.
स्वामी ने निभाई थी सरकार गिराने में अहम भूमिका
डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने बाजपेयी सरकार गिराने के इस ऑपरेशन में मुख्य भूमिका निभाई. इसके बाद वह सोनिया गांधी और जयललिता को एक साथ लाए. स्वामी ने बाद में खुलासा किया, ‘उनके रिश्ते सौहार्दपूर्ण थे लेकिन राजीव गांधी के समय से ही दोनों के रिश्तों में बेहद कड़वाहट थी. सोनिया, जया से बात करने से बचती थीं. उन्हें एक साथ लाने के लिए बहुत समझाने की जरूरत पड़ी और अंतत: वह दोनों को मिलाने में सफल रहे.’